एक ही सवाल वो बार बार दोहराते हैं
महंगा फ़ोन लेने पर जाने कितना सुनाते हैं
तुम्हारे बड़े मुकामों पे मिलती हैं छोटी छोटी शाबाशियाँ
पर अपने दिनों की चलती रहती रात- दिन किस्सेगोइययाँ.
थोड़े ज़िद्दी, थोड़े अकड़ू अब होने लगे हैं
रोशनी के साथ आँखों की चमक भी खोने लगे हैं
बचपन के कंधों का सिंहासन अब झुका खुका सा लगता है
एक निवाले के लिए पीछे भागने वाली के घुटनों में अब बस दर्द बसता है
एक पल के लिए छोड़ दो तुम अपना सारा व्यापार
और बटोर लो दोनो हाथों से उनका आशीर्वाद और क़िस्सों का भंडार
क्योंकि जीवन ने अपने आप को कुछ ऐसा लाकर मोड़ा है
की मां- बाप के साथ अब वक़्त बहुत थोड़ा है