Wednesday, July 19, 2017

ना फूलों पे सोई थी मैं
ना पलकों पे खेली
ना रेशम में लिपटी थी मैं
ना झूलों  में झूली
नरम नरम बिस्तर ना मेरा
ना षटरस  पकवान
ना कोई थी मधुर कहानी
ना लोरी की तान
रंग बिरंगे कपड़े कब थे
कब थी बिंदिया लाली
ना ही कोई गुड़िया मेरी
सुंदर आँखों वाली
मिट्टी ने हैं पाला मुझको
मिट्टी ने है काढ़ा
मिट्टी का ही रंग चढ़ा है
मुझपर इतना गाढ़ा

कहते हो तुम नही है मुझमे
कोई अदब की आशा
कहते हो तुम भूल मैं जाऊँ
अपनी ये परिभाषा
कहते हो तुम जंग  नही ये
दुनिया की रीतें हैं
कहते हो की मुझसे कम हैं
सब रीतो में जीतें हैं
कहते हो तुम मैं छुप जाऊँ
सोने के महलों में
कहते हो तुम मैं घुल जाऊँ
मीठी इन गज़लों में
कहते हो के बन जाऊँ मैं
सुघड़ और संस्कारी
पर ना जाने कब समझोगे
तुम मेरी लाचारी

कैसे मैं बतलाऊँ तुमको
नदी नही सागर हूँ
जल कर, तप कर, आज बनी जो
सपनों की गागर हूँ

साँचे में ना आऊँगी मैं
नही बनूँ परछाई
मिट्टी हूँ, नही ख़ौफ़ किसी का
मैं संघर्षों की सिपाही।


Tuesday, July 11, 2017

In infinite numbers
In infinite shapes
are these paintings.
These tiny crimson droplets
These stamps of bravery
or cowardice
Nobody knows
or everybody does.

A was merry, B was radiant
A's feast was tomorrow
B's deity was waiting
A's odyssey was taking him home
B's voyage sought the Almighty

A was stabbed
B was shot
Both amusing the lovers of crimson

In infinite numbers
In infinite shapes
are the likes of A and B
Lost in the Arcadia.